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तब अरयूब ने कहा,
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निर्बल जन की तू ने क्या ही बड़ी सहायता की, और जिसकी बांह में सामर्थ्य नहीं, उसको तू ने कैसे सम्भाला है?
3
निर्बुध्दि मनुष्य को तू ने क्या ही अच्छी सम्मति दी, और अपनी खरी बुध्दि कैसी भली भांति प्रगट की है?
4
तू ने किसके हित के लिये बातें कही? और किसके मन की बातें तेरे मुंह से निकलीं?
5
बहुत दिन के मरे हुए लोग भी जलनिधि और उसके निवासियों के तले तड़पते हैं।
6
अधोलोक उसके साम्हने उधड़ा रहता है, और विनाश का स्थान ढंप नहीं सकता।
7
वह उत्तर दिशा को निराधार फैलाए रहता है, और बिना अेक पृथ्वी को लटकाए रखता है।
8
वह जल को अपनी काली घटाओं में बान्ध रखता, और बादल उसके बोझ से नहीं फटता।
9
वह अपने सिंहासन के साम्हने बादल फैलाकर उसको छिपाए रखता है।
10
उजियाले और अन्धियारे के बीच जहां सिवाना बंधा है, वहां तक उस ने जलनिधि का सिवाना ठहरा रखा है।
11
उसकी घुड़की से आकाश के खम्भे थरथराकर चकित होते हैं।
12
वह अपने बल से समुद्र को उछालता, और अपनी बुध्दि से घपणड को छेद देता है।
13
उसकी आत्मा से आकाशमणडल स्वच्छ हो जाता है, वह अपने हाथ से वेग भागनेवाले नाग को मार देता है।
14
देखो, ये तो उसकी गति के किनारे ही हैं; और उसकी आहट फुसफुसाहट ही सी तो सुन पड़ती है, फिर उसके पराक्रम के गरजने का भेद कौन समझ सकता है?
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